संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के प्रतिपादक जीन पियाजे ने किया |जीन पियाजे स्विट्जरलैंड के निवासी थे। जीन पियाजे एक मनोवैज्ञानिक और आनुवंशिक एपिस्टेमोलॉजिस्ट थे। वह सबसे अधिक संज्ञानात्मक विकास के अपने सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध है जो इस बात पर ध्यान देता है कि बचपन के दौरान बच्चे बौद्धिक रूप से कैसे विकसित होते हैं।
जीन पियाजे की आधारभूत धारणाएँ -
1. स्कीम्स (Schemes ) :
अलग-अलग संदर्भों में लेकिन एक सी स्थितियों में बार-बार लागू होने पर जो क्रिया व्यापक और बेहतर होती जाती है उसे स्कीम कहते हैं। अर्थात् स्कीम व्यवहारों का एक संगठित पैटर्न होता है जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है। उदाहरणार्थ बालक का स्कूल जाने से पूर्व तैयार होना। यह एक तयशुदा रूटीन के अनुसार होता है, जैसे स्कूल ड्रेस पहनना, जूते पहनना, बैग उठाना आदि उसके व्यवहार में शामिल संगठित पैटर्न है।
2. स्कीमा (Schema) :
- किसी विषय पर ज्ञान का संगठित समूह जो कि लम्बे समय की याददाश्त (Long time memory) में एकत्रित होते हैं।
- अनुभव से सही अर्थ निकालने का व्यवस्थित तरीका स्कीमा व्यक्ति की विश्व के विभिन्न पक्षों, रूपों के बारे में उसके
- ज्ञान एवं धारणाओं को अभिव्यक्त करने वाली संरचनाएँ होती है। स्कीमा में किसी व्यक्ति की किसी अवधारणा व उसके गुणों के प्रति समझ का रेखाचित्र प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
- स्कीम व स्कीमा में समायोजन व परिवर्तन के जरिए विस्तार होता है। स्कीमा एक ऐसी मानसिक क्रिया है जिसका सामान्यीकरण किया जा सकता है।
3. अनुकूलन (Adaptation) :
- बालक एवं उसके वातावरण के मध्य चलने वाली परस्पर क्रिया द्वारा समतुल्यन अर्थात् इसमें बालक वातावरण के साथ सीधे पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा योजना निर्माण कर लेता है।
- इसमें दो परस्पर पूरक गतिविधियाँ सम्मिलित रहती है
1. समावेशीकरण/आत्मसातीकरण (Assimilation)
2. समायोजन/समाविष्टीकरण (Accomodation)
समावेशीकरण/आत्मसातीकरण/आत्मीकरण( Assimilation ) :
- मौजूदा ज्ञान (स्कीमा) में नई जानकारी को शामिल करने की प्रक्रिया।
- सावैगिक सूचना और संचित ज्ञान के मध्य सामंजस्य स्थापित करना।
New Knowledge ⇨ is incorporated into(समाविष्ट करना) ⇨ Existing Knowledge Structure (स्कीमा)
अर्थात् इसमें बालक के सामने यदि कोई नयी समस्या आए तो उसके समाधान हेतु वह अपने मन में पूर्व में विद्यमान स्कीमा का प्रयोग करके नये ज्ञान को उसी में समाविष्ट कर देता है।
उदाहरणार्थ - एक 2 वर्षीय बालक ने विभिन्न प्रकार की बिल्लियाँ। देखी और इसी आधार पर बिल्ली के प्रति एक स्कीमा बनाया जैसे चार छोटे पैरों वाला पशु। अब उसी बालक ने पहली बार कुते का पिल्ला देखा और समावेश द्वारा उसे इसी स्कीमा में डाल दिया।।
समायोजन (Accomodation ) :
- मौजूदा ज्ञान (स्कीमा) को संशोधित करते हुए उसमें नई जानकारी तथा अनुभवों का समायोजन।
- इसमें किसी नयी समस्या के समाधान हेतु अपने मन में पूर्व में विद्यमान स्कीमा का प्रयोग न करके उसमें संशोधन करते हुए एक नये स्कीमा का निर्माण होता है।
उदाहरण - यदि बालक का सामना बार-बार कुते के पिल्ले से होगा तो उसे बिल्ली व कुते में अंतर का ज्ञान होगा। इस प्रकार वह इन नये अनुभवों के आधार पर पिल्ले के विषय में एक अन्य स्कीमा विकसित कर लेता है।
4. साम्यधारण/संतुलीकरण (Equilibration ) :
- संतुलनीकरण से बालक समावेशीकरण व समायोजन की प्रक्रिया के मध्य एक संतुलन कायम करता है अर्थात् यह बालक द्वारा अपनी संज्ञानात्मक संरचनाओं को स्थिर करने का प्रयास है।
- पियाजे के अनुसार यदि बालक के सामने ऐसी परिस्थिति या समस्या आ जाये जिसका उसने कभी सामना ही नहीं किया। हो तो एक प्रकार की संज्ञानात्मक असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है जिसे संतुलित करने के लिए वह समावेशीकरण या समायोजन अथवा दोनों ही प्रक्रियाएँ करना प्रारंभ कर देता है।
- साम्यधारण/संतुलीकरण 'पुरानी' और 'नयी' धारणाओं और अनुभव के मध्य संतुलन क्रिया है।
- पियाजे ने अनुभव व संतुलनीकरण को संज्ञानात्मक विकास के निर्धारक तत्वों में माना है।
जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
जीन पियाजे ने विभिन्न आयु के बच्चों के बीच संज्ञानात्मक विकास का एक व्यवस्थित अध्ययन किया और उन्होंने इसे विभिन्न विकास चरणों में वर्गीकृत किया। ये चरण हैं-
संवेदी-पेशीय अवस्था (0 से 2 वर्ष)पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (2 से 6 वर्ष)मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (6 से 11 वर्ष)अमूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (11+ वर्ष से किशोरावस्था तक)।
1.संवेदी पेशीय अवस्था/ इंद्रिय जनित अवस्था – 0 से 2 वर्ष
- जन्म के समय शिशु वाह जगत के प्रति अनभिज्ञ होता है धीरे-धीरे व आयु के साथ साथ अपनी संवेदनाएं वह शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से बाय जगत का ज्ञान ग्रहण करता है
- वह वस्तुओं को देखकर सुनकर स्पर्श करके गंध के द्वारा तथा स्वाद के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है
- छोटे छोटे शब्दों को बोलने लगता है
- परिचितों का मुस्कान के साथ स्वागत करता है तथा आप परिचितों को देख कर भय का प्रदर्शन करता है
2 . पूर्व सक्रियात्मक अवस्था : 2 से 7 वर्ष
- अवस्था में दूसरे के संपर्क में खिलौनों से अनुकरण के माध्यम से सीखता है
- खिलौनों की आयु इसी अवस्था को कहा जाता है
- शिशु, गिनती गिनना रंगों को पहचानना वस्तुओं को क्रम से रखना हल्के भारी का ज्ञान होना
- माता पिता की आज्ञा मानना, पूछने पर नाम बताना घर के छोटे छोटे कार्यों में मदद करना आदि सीख जाता है लेकिन वह तर्क वितर्क करने योग्य नहीं होता इसीलिए इसे आतार्किक चिंतन की अवस्था के नाम से भी जाना जाता है
- वस्तु स्थायित्व का भाव जागृत हो जाता है
- निर्जीव वस्तुओं में संजीव चिंतन करने लगता है इसे जीववाद कहते हैं
- प्रतीकात्मक सोच पाई जाती है
- अनुकरण शीलता पाई जाती है
- शिशु अहम वादी होता है तथा दूसरों को कम महत्व देता है
3 . स्थूल / मूर्त संक्रिया त्मक अवस्था: 7 से 12 वर्ष
- इस अवस्था में तार्किक चिंतन प्रारंभ हो जाता है लेकिन बालक का चिंतन केवल मुहूर्त प्रत्यक्ष वस्तुओं तक ही सीमित रहता है
- वह अपने सामने उपस्थित दो वस्तुओं के बीच तुलना करना, अंतर करना, समानता व असमानता बतलाना, सही गलत व उचित अनुचित में विविध करना आदि सीख जाता है
- इसीलिए इसे मूर्त चिंतन की अवस्था के नाम से भी जाना जाता है
- बालक दिन, तारीख, समय, महीना, वर्ष आदि बताने योग्य हो जाता है
- उत्क्रमणीय शीलता पाई जाती है इसीलिए इसे पलावटी अवस्था के नाम से भी जाना जाता है
- भाषा एवं संप्रेषण योग्यता का विकास की अवस्था में हो जाता है
4 औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था : 12 वर्ष के बाद
- इस अवस्था में किशोर मूर्ति के साथ साथ अमूर्त चिंतन करने योग्य भी हो जाता है
- इसीलिए इसे तार्किक चिंतन की अवस्था के नाम से भी जाना जाता है
- इस अवस्था में मानसिक योग्यताओं का पूर्ण विकास हो जाता है
- इस अवस्था में परीकल्पनात्मक चिंतन पाया जाता है